असम में “अवैध आप्रवासी” अभियान जैसे जैसे तीव्र हो रहा है, बंगाली-भाषी मुस्लिम समुदायों में भय, अस्पष्टता और अस्थिरता की लकीरें गहरी होती जा रही हैं।इन इलाकों में लोग लगातार यह डर महसूस कर रहे हैं कि उनका आश्रय, उनकी पहचान, उनकी ज़मीन जोखिम में है। अक्सर उन्हें सरकारी नोटिस मिलते हैं, “सैनिक कार्रवाई” के रूप में बुलाया जाता है, या ऐसे कागजात माँगे जाते हैं जो नागरिकता या निवास की कानूनी स्थिति को साबित कर सकें।
एक परिवार, जिसका नाम बदल कर लिया गया है, बताता है कि कैसे बच्चों को स्कूल से निकालने की धमकी मिली क्योंकि स्कूल ने कहा कि उनके पते या नागरिकता प्रमाण नहीं दिखा सकते। दूसरे एक व्यक्ति को सरकारी राशन की दुकान से नकार दिया गया क्योंकि उनका नाम आधिकारिक सूची में नहीं पाया गया। ये घटनाएँ सिर्फ व्यक्तिगत नहीं हैं—पूरी-पूरी बस्तियाँ प्रभावित हैं।सरकार का पक्ष है कि यह कार्रवाई अवैध प्रवासियों को बेनकाब करने के लिए है, लेकिन समुदाय का अनुभव है कि “अवैध” और “अवैध नहीं” की सीमाएँ बहुत धुंधली हैं। कई लोग बताते हैं कि वे दशकों से उसी जगह रहते हैं, उसी तरह कर चुका रहे हैं, लेकिन अब दायित्वों और नियमों की पुरानी रेखाएँ नए सिरे से लागू हो रही हैं।
वे कहते हैं कि न्याय पाने के रास्ते धीमे या अनुपलब्ध हैं: कानूनी प्रक्रियाएँ जटिल हैं, प्रमाण जुटाना मुश्किल है, और अधिकारी कभी स्पष्ट निर्देश नहीं देते।इस बीच सामाजिक और मनोवैज्ञानिक असर भी गहरा है — लोगों में अस्थिरता, ज़िंदगी का साथी-भय, अक्सर सामाजिक अलगाव की भावना बढ़ी है। पड़ोसी समुदायों के साथ रिश्तों में खिंचाव आया है। बच्चों में पढ़ाई पर असर, रोज़मर्रा के कामकाज में बाधाएँ, और छोटे-छोटे आर्थिक झटके रोज़मर्रा की बात हो गई हैं।
असम में यह स्थिति सिर्फ कानूनी या प्रशासनी मुद्दा नहीं है; यह उस विश्वास का प्रश्न है जो लोग सरकार से रखते हैं कि वह सभी नागरिकों को न्याय प्रदान करेगा। यदि ये भय और अनिश्चितता बरकरार रहे, तो सिर्फ सुरक्षित-नागरिकता की लड़ाई नहीं बल्कि सामाजिक ताने-बाने की रक्षा भी दांव पर है।
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