जब भावना ने रणनीति को मात दी।
दुनिया के लिए 2025 FIDE महिला वर्ल्ड कप में दिव्या देशमुख की जीत एक जश्न का मौका थी। लेकिन इस चमकदार नतीजे के पीछे एक किशोरी की कठिन यात्रा छिपी थी — आत्म-संदेह, भावनात्मक संघर्ष और शांत लेकिन दृढ़ संकल्प शामिल थे। उनकी सफलता का रास्ता अपने डर को संभालना, दबाव का सामना करना और असफलताओं से सीखकर आगे बढ़ना था। जहाँ बहुत से प्रतिभाशाली खिलाड़ी आत्मविश्वास से भरे दिखते हैं, वहीं दिव्या ने स्वीकार किया है कि उन्हें हाई-प्रेशर मैचों में घबराहट और असुरक्षा का सामना करना पड़ा। एंडगेम्स उनके लिए खासतौर पर तनावपूर्ण रहे; उन्होंने एक बार यह भी माना कि उन्हें छोटे लाभों को बदलने या नाज़ुक स्थितियों को संभालने में संदेह होता था।
वे खेलों के बीच के अंतराल का उपयोग तनाव से भागने के लिए नहीं, बल्कि अपनी मानसिक स्थिति का विश्लेषण करने के लिए करती थीं। दूसरे रैपिड गेम में, उन्होंने हम्पी की एक दुर्लभ चूक का फ़ायदा उठाया और खेल का रुख पलट दिया। यह सिर्फ गणना नहीं थी, बल्कि अंतर्ज्ञान, वर्तमान में टिके रहने और अपनी तैयारी पर भरोसा करने का परिणाम था। खासकर समय के दबाव में उनका निर्णय लेना उनके उम्र से कहीं अधिक परिपक्वता दर्शाता था। यह उन वर्षों की मानसिक ट्रेनिंग का नतीजा था, जो उन्होंने अपने आप को उथल-पुथल के पलों में स्थिर रखने के लिए की थी। हर पदक के पीछे वह अंदर की आलोचना को शांत करने, और अपनी सहज समझ पर भरोसा करना सीखने में बिताए।
वह अक्सर अपनी प्रगति का श्रेय हार से मिली सीख को देती हैं — न सिर्फ तकनीकी हारों को, बल्कि मानसिक हारों को, जब संदेह ने उनके खेल पर असर डाला। हर टूर्नामेंट के साथ उन्होंने असफलता के प्रति अपने नजरिए को दोबारा गढ़ा। उन्होंने इसे अपनी क्षमता पर एक फैसला मानने के बजाय प्रक्रिया का हिस्सा मानना शुरू किया। एक आत्म-आलोचक, कभी-कभी घबराई हुई किशोरी का रूपांतरण एक मंझे हुए, केंद्रित प्रतियोगी में जो सबसे बड़े मंच पर डटकर खड़ी रह सके — यही उनकी असली उपलब्धि है। उनकी जीत सिर्फ भारतीय शतरंज के लिए एक बड़ी उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह याद दिलाती है कि महानता हमेशा निडर होने में नहीं होती — कभी-कभी यह अपने डर को सीधे देखने और फिर भी आगे खेलने का निर्णय लेने में होती है।